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Wednesday, April 24, 2024

पितरों को श्रद्धासुमन अर्पित करने का पर्व ‘श्राद्ध’

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नई दिल्ली। प्रतिवर्ष आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक महात्मय यानी पितृपक्ष के श्राद्ध निर्धारित रहते हैं। प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते हैं। इस वर्ष ये 1 सितम्बर से 17 सितम्बर तक रहेंगे। श्राद्ध शब्द का अर्थ ही है जो कर्म श्रद्धा से किया जाए। हमारे धर्मशास्त्रों में प्रसंग मिलता है कि जो  अपने  पितरों  को  प्रसन्न  रखने  तथा  शांति  के  लिए कर्म नहीं करता, वह नाना प्रकार के कष्टों, रोग, शोक, संतान, कष्ट, राजकष्ट एवं भूमि कष्ट से पीड़ित होता है।

हमारा अस्तित्व हमारे पूर्वजों से है। जब हमारे पूर्वज हमसे रुष्ट रहेंगे तो देवता भी हमारे पास नहीं आ सकेंगे। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार एक वर्ष तक प्राय: सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता। इसी कारण मोहवश सूक्ष्म जीव अपने घर एवं परिजनों के इर्द- गिर्द घूमता रहता है। श्राद्ध कर्म से सूक्ष्म जीव को तृप्ति मिलती है। इसीलिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि अनेक विधियों से पित्तरों की शांति की जाती है।

वेदों के अनुसार इस सृष्टि का निर्माण ब्रह्मा जी ने किया था। उसके परिचालन में देव, ऋषि एवं पित्तर अपने- अपने कार्य को सम्पूर्ण करते हैं। प्रत्येक मनुष्य के अंदर अपने पूर्वजों (पितरों) के गुणयोग (अंश) होते हैं। जब पिता द्वारा जीव माता के गर्भ में जाता है तो उसमें 84 अंश (गुण) होते हैं जिसमें 26 गुण (अंश) तो शुक्र पुरुष के स्वयं के भोजनादि द्वारा उपाॢजत होते हैं। शेष 58 गुण पितरों के द्वारा प्राप्त होते हैं। ऋषि पराशर जी ने मानव की आयु कलयुग में कम से कम 120 वर्ष बताई थी। 

जो पुरुष अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, उनको इसी जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध कर्म करने वाले गृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णु लोक और ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।

महाभारत में एक प्रसंग आता है कि मृत्यु के उपरांत दानवीर कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इनकार कर दिया था। तब कर्ण ने चित्रगुप्त से कहा कि मैंने अपनी सारी सम्पदा दानपुण्य में ही समर्पित की है फिर मुझ पर यह कैसा ऋण शेष रह गया है? तब चित्रगुप्त ने बतलाया ‘‘राजन आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुकता कर दिया, अब आप पर पितृ ऋण शेष है। आपने अपने जीवन काल में संपदा एवं सोने का ही दान किया, अन्न का दान नहीं किया। जब तक आप इस ऋण को नहीं उतारते आपको मोक्ष मिलना संभव नहीं।’

इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पृथ्वी लोक में जाइए। अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों को प्रसन्न करने के लिए श्राद्ध तर्पण कीजिए तथा दान विधिवत करके आइए तभी आपको मोक्ष की प्राप्ति होगी। दानवीर कर्ण ने ऐसा ही किया। तभी उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई।

गरुड़ पुराण में कहा गया है कि अमावस्या के दिन पितृगण वायुरूप में घर के दरवाजे पर दस्तक देते हैं। वे अपने परिजनों से श्राद्ध की इच्छा और अन्न जल की अभिलाषा रखते हैं। उससे संतृप्त होना चाहते हैं। सूर्यास्त के बाद वे निराश होकर लौट जाते हैं। 

पितृ इतने दयालु होते हैं कि कुछ भी पास न हो तो दक्षिण दिशा की तरफ मुंह करके आंसू बहा देने से ही तृप्त हो जाते हैं। इस समय सूर्य कन्या राशि में स्थित होते हैं। इस अवसर पर चंद्रमा भी पृथ्वी के काफी करीब होता है। चंद्रमा से थोड़ा ऊपर पितृ लोक माना गया है। सूर्य राशियों पर सवार होकर पितृ पृथ्वी लोक में अपने पुत्र-पौत्री के यहां आते हैं तथा अपना भाग लेकर शुक्ल प्रतिपदा को सूर्य राशियों पर सवार होकर वापस अपने लोक लौट जाते हैं।

महाभारत में वर्णन है कि पिहोवा कुरुक्षेत्र की आठ कोस की भूमि पर बैठकर ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी। गंगा पुत्र भीष्म पितामह की सद्गति भी पृथुदक में हुई थी। पिहोवा में प्रेत पीड़ा शांत होती है। अकाल मृत्यु होने पर दोष निवारण के लिए पिहोवा में कर्मकांड करवाने की परम्परा है। ऐसा करने से मृतक प्राणी अपगति से सद्गति को प्राप्त हो जाता है।
धर्मशास्त्रों में लिखा है कि पिंड रूप में कौओं को भी भोजन कराना चाहिए। ब्रह्मा जी ने सत्व, रज और तमोगुण के मिश्रण के साथ सृष्टि का निर्माण किया। पक्षियों में कौआ तमोगुण से युक्त है। पुराणों में कौए को यम का पक्षी माना गया है। तमोगुण का रंग भी काला है तथा कौए का भी। मान्यता है कि पितर काक के रूप में अपना भाग लेने आते हैं।

एक किंवदंती के अनुसार पहले कौओं का रंग काला नहीं होता था, वे उजले सफेद होते थे। उसकी चतुराई से प्रभावित होकर एक बार ऋषियों ने एक कौवे को अमृत लेने के लिए भेजा। अमृत उस समय राक्षसों के पास था। वह कौवा वहां से अमृत तो ले आया लेकिन लालसा में उसने पात्र में चोंच मारकर अमृत का स्वाद चख लिया। 
जब ऋषियों को इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने कौवे को काला होने का श्राप दे दिया। तभी से ही ये काले रंग के हो गए। अमृत का स्वाद चखने के कारण इनकी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती अर्थात यह दीर्घजीवी हैं। कौवा मनुष्य में दादा से पड़पोते तक की चार आयु को जी लेता है।

एक थाली पितरों के लिए, एक गाय के लिए, एक कौवे और कुत्ते के लिए निकालनी चाहिए ताकि हमारे पूर्वज किसी भी रूप में प्रसन्न होकर आशीष दें और कार्य सफल हो। हमारा अस्तित्व पूर्वजों के ही कारण है। अगर हमारे पितृ हमारे किए श्राद्ध कर्म से प्रसन्न होंगे तभी हम समृद्ध होंगे। पितरों को श्रद्धासुमन अर्पित करने को ही श्राद्ध कर्म कहा जाता है।

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